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कविता

शब्दों के साथ

मुकेश कुमार


चावल के चंद दानों की तरह
शब्दों को हाथ में लेकर देखो
नाक के करीब लाकर उन्हें सूँघो
समय का सही-सही हाल बता देते हैं वे

रेतघड़ी हैं, दिशासूचक यंत्र हैं और मापक हैं काल की गति के
ऋतुओं के आवागमन और प्रकृति की चाल के वाहक है शब्द

अँधेरे में भी चमकते हैं आग के गोलों जैसे
और धड़कते हैं मुट्ठी में बंद लाल मखमली लाल कीड़े की तरह

हमने चखा है शब्दों को बुरे वक्तों में
एक नन्हीं सी उम्मीद की चाह में
और सपने बनकर उगते रहे हैं वे हमारे मस्तिष्क की गुहाओं में

हमने उनसे कभी भी नहीं माँगा अवांछित
अपेक्षा नहीं रखी अतिरिक्त की
क्योंकि शब्द अगर वरदान देते हैं तो कुपित हो देते होंगे शाप भी

शब्दों के आगे हाथ फैलाया भी तो इतना
कि गरदन तनी रहे और आँखें भी न झुकें
उन्होंने भी लिहाज रखा है हमारा
हमारी मजबूरी हमारे बीच ही रही
कभी शर्मिंदा नहीं होने दिया औरों के सामने

एक पुराना भरोसा है
जो तमाम प्रलोभनों, दबावों और बहकावों के बावजूद
टूटा नहीं है अब तक
शायद इसलिए भी
कि कोई दूसरा संबल नहीं है हमारे पास
कर लेते हैं एक दूसरे से दो बातें
जब कभी होते हैं उदास और हताश।

 


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